मल्लयुद्ध वास्तव में एक प्रकार की युद्ध कला है। विश्व भर में युद्ध लड़ने की कई कलाएं मौजूद हैं। कुछ कलाएं हथियारों से लड़ी जाने वाली हैं तो कुछ मात्र हाथों से ही लड़ी जाती हैं। दो व्यक्तियों के बीच लड़ी जाने वाली युद्ध कला को द्वंद्व कला कहा जाता है। इस युद्ध कला मल्ल युद्ध को द्वंद्व कला की ही श्रेणी में रखा जाता है। द्वंद्व युद्ध हथियारों या बिना हथियारों के लड़ा जा सकता है। इसके अलग अलग प्रकार होते हैं। जैसे भीम और दुर्योधन के बीच लड़ा जाने वाला द्वंद्व युद्ध ‘गदा’ शस्त्र से लड़ा गया था। इस द्वंद्व युद्ध को ‘गदा युद्ध’ भी कहा जाता है।

मल्लयुद्ध भी ऐसी ही द्वंद्व युद्ध कला है। इसमें बिना हथियार के शारीरिक बल एवं बुद्धि का प्रयोग करना होता है। इस कला का जन्म भी भारत में ही हुआ। प्राचीनकाल से लेकर आज भी यह कला कई रूपों में जीवित है।
मल्ल युद्ध का इतिहास: (history of mallyuddha?)
यह बहुत ही प्राचीन युद्धकला मानी जाती है। इतिहासकारों के अनुसार भारत में ‘आर्य सभ्यता’ के समय से ही यह कला प्रचलित थी। महाभारत एवं रामायण में भी कई प्रकार के मल्ल युद्धों एवं योद्धाओं का वर्णन मिलता है।
रामायण काल में मल्ल युद्ध
इस कला का पहला लिखित प्रमाण महान महाकाव्य ‘रामायण’ में मिलता है। इसमें लंका के राजा रावण का किष्किन्धा नगरी के सम्राट वानरराज बाली के साथ भीषण मल्लयुद्ध का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि इस युद्ध में लंका नरेश रावण की पराजय हुई थी। रामायण में भगवान श्री राम भक्त हनुमान जी, बालि, सुग्रीव, अंगद, रावण, जामवन्त इत्यादि योद्धाओं का नाम आता है।
महाभारत काल में मल्ल युद्ध
महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण, बलराम जी, भीम, जरासन्ध जैसे मल्ल योद्धाओं का वर्णन मिलता है। महाकाव्य ग्रन्थ ‘महाभारत’ में भीम और जरासंध का युद्ध भी मल्लयुद्ध कला को दर्शाता है। इसी प्रकार द्वापर युग में ही भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् श्री कृष्ण जी द्वारा मथुरा के राजा कंस को मल्लयुद्ध करके वध करने का स्पष्ट वर्णन मिलता है। यह कला भारतीय इतिहास के कई युगों में विभिन्न रूपों में दिखाई देती रही है।
एक विशेष जाति थी मल्ल युद्ध में निपुण
उस समय एक विशेष जाति थी जो कि ‘द्वंद्व युद्ध कला’ में अत्यंत निपुण थी। इस जाति को ‘मल्ल जाति’ के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि ‘मल्ल जाति’ के लोग इस कला में इतने पारंगत थे कि उन्हें कोई हरा नहीं सकता था। इस जाति के लोग इस कला का अभ्यास ‘बाल्यकाल’ से ही आरंभ कर देते थे। ये अभ्यास निरंतर चलता था। यही कारण था कि युवाकाल तक पहुँचते-पहुँचते वे इस कला में अत्यंत पारंगत हो जाते थे। इस ‘मल्ल जाति’ का उल्लेख ‘मनुस्मृति’ में ‘लिछिवी’ के नाम से किया गया है। उस काल में ‘मल्ल जाति’ के लोगों की इतनी प्रतिष्ठा थी, कि अधिकांश राजा ‘मल्ल जाति’ के लोगों को अपने राजदरबार में विशेष रूप से नियुक्त करते थे, ताकि वे लोग इस खेल के द्वारा अपना शक्ति प्रदर्शन कर सकें।
महात्मा गौतम बुद्ध थे मल्ल युद्ध में निपुण
भगवान् ‘गौतम बुद्ध’ जो कि पहले कपिलवस्तु नगरी के राजकुमार थे। वह भी पहले एक कुशल तीरंदाज़, पहलवान एवं युद्धकला में निपुण माने जाते थे। उस समय भी यह कला प्रचलित थी। भारत में लगभग सोलहवीं शताब्दी में ‘बोद्ध धर्म’ एवं ‘जैन धर्म’ के फैलने के समय भी यह ‘युद्धकला’ एवं ‘पारम्परिक-खेल’ के रूप में प्रचलित रही थी।
विजयनगर साम्राज्य के राजा ‘कृष्णदेव राय’ भी मल्लयुद्ध कला के बहुत शौक़ीन थे। उस काल में भी इस कला का काफी प्रचार एवं प्रसार हुआ।
इन्बुआन: मिजोरम की मल्लयुद्ध कला
मल्ल युद्ध पर आधारित ग्रन्थ ‘मानसोलासा’
चालुक्य वंश के राजा सोमेश्वर तृतीय (ई. 1124 – 1138) के समय एक ग्रन्थ लिखा गया था। इस ग्रन्थ का नाम है ‘मानसोलासा’। ‘मानसोलासा’ नाम का यह ग्रन्थ युद्धकला पर आधारित है। इस ग्रन्थ को ‘चालुक्य वंश’ का शाही ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ के ‘मल्ला विनोद’ नामक अध्याय में यह बताया गया है कि इस कला को सीखने के लिए किस प्रकार का व्यायाम एवं भोजन शैली होनी चाहिए। इस अध्याय में विस्तार पूर्वक बताया गया है कि खिलाडी का इस कला के प्रति कैसा समर्पण भाव होना चाहिए। कला के ‘दाव पेंच’ और कठिन ‘युद्ध शैली’ की नीतियों का वर्णन भी अति स्पष्ट रूप से किया गया है।
मल्ल युद्ध पर आधारित ग्रन्थ ‘ज्येस्थिमल्ला’
तेरहवीं शताब्दी में गुजरात में मल्ल युद्ध पर आधारित एक ग्रन्थ लिखा गया था, इस ग्रन्थ का नाम है ‘ज्येस्थिमल्ला’। यह ग्रन्थ गुजरात के एक ब्राह्मण ने लिखा था। ये ब्राह्मण इस कला में निपुण थे, एवं क्षत्रिय, राजाओं तथा सैनिकों को इस कला की शिक्षा भी दिया करते थे। ‘ज्येस्थिमल्ला’ नामक ग्रन्थ में भी इस कला का विस्तृत वर्णन किया गया है.
आधुनिक समय में मल्ल युद्ध
यह कला आज भी भारत देश के कर्नाटक, गुजरात, हरियाणा, पंजाब आदि प्रदेशों में काफी लोकप्रिय है। इस कला का प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया में भी बहुत फैला। आज भी यह कला जावा, मलेशिया, थाईलैंड, चीन, जापान आदि देशों में अलग-अलग रूपों में खेली जाती है।